पुरानी कलम से ...
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बादलो से जब स्वाति बूँद
चली छोड़ अपने सगे,
धरती के दो आश्रित प्राणी
एकटक उसे देखने लगे |
एक थी वो चंचल सीप
जो आज उसे बुला रही थी,
अनुपम चिरसौन्दर्य का
ख्वाब उसे दिखा रही थी |
दूसरा एक व्याकुल चातक
वर्षभर जो तप रहा था,
पिछली वर्षा ऋतु से
उसकी राह तक रहा था |
फैसला था उसको लेना
किस पथ पर अब वो जाये,
अपने चिरयोवन पर इतरे
या अनंत में मिल जाये|
खुद मे नन्ही जान भरे
वो आगे बदने लगी,
कभी इस पथ कभी उस पथ
वो दूरी कम करने लगी |
एक बार उसने जो ठाना
फिर न देरी की मरण मे,
और वो नहीं बूद जाकर
गुम गयी प्रेम की शरण मे |
वो प्रेमी चातक ही था
उसको ही तकता रहा जो,
वर्ष भर उसकी रह मे
तट पर था प्यासा खड़ा वो |
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